गुरुवार, अक्तूबर 14, 2010

जाने क्यों बदल गया मैं..

“जब तक व्यक्ति को ये महसूस होता है की शायद उसके पिता सही थे तब उसके साथ उसका पिता नहीं पुत्र साथ होता है”        -चार्ल्स वोर्ड्सवोर्थ

दूर कहीं से आवाज़ आ रही है, शायद गणेश विसर्जन वाले हैं ,प्रभु और अंजली शायद गाँव में असहजता झेल के इतने थक गए हैं की बिस्तर पर लेटते ही उन्हें नींद आ गयी, आज ना जाने कितने सालों बाद ऐसी नौबत आई है की सोना चाह कर भी नहीं सो पा रहा हूँ, काफी देर सोने की कोशिश के बाद गुस्से से उठ कर डब्बे जैसे कमरे से निकलता हूँ |

मैं अपनी पत्नी और बच्चो को गाँव लाकर ये दिखाना चाहता था मैंने कैसे दलदल में रह कर अपनी जिंदगी बनायीं है, शहर और अपनी महानता साबित करने के लिए छुट्टी मल्टीनेशनल कंपनी से ली थी |

कमरे से बाहर निकलते ही सामने तुलसी का पौधा था, जिसे माँ रोज सुबह पानी पिलाती थी, और माँ के जाने के बाद पिताजी ये जिम्मेदारी निभाते थे ,माँ के बारे में इसके अलावा बस यही याद है की हमेशा पिताजी और मुझे जबरदस्ती खूब सा खाना परोस देती थी, तुलसी के तीनों और कमरे बने हुए थे,एक ओर गायों के रहने के लिए, एक ओर पिताजी और मेरे रहने के लिए, एक ओर बने कमरे में पिताजी जाने क्या हिसाब किताब किया करते थे ,उस कमरे में मै काफी कम ही गया था, पिताजी उस कमरे का ताला हमेशा काम करने के बाद बंद कर देते थे, बचपन में मुझे लगता की उसके अंदर बहुत कीमती सामान रखा होता होगा पर पिताजी के गुजरने के बाद देखा था कुछ पुराने बक्से थे मेरी कुछ पुरानी किताबे थी |

कमरे के बाहर एक आइना था जो की एकमात्र था,इसी आयने के सामने मैं बचपन में अलिफ़ लैला के पात्रों की नकल करता था, अब तो आईने में काले-काले दाग हो गए हैं इसमें अपना शक्ल देखने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, कमरे की चाबी इसके बाहर ही लटकी हुई मिली, अंदर गया तो संदुक नजर आई थोडा धुल हटा के देखा तो हारमोनियम था, संतु बताया करता जब मालिक की शादी नहीं हुई थी तो कभी बजाया करते थे, पिताजी से पूछने पर हमेशा डांट दिया करते, उसके बगल में लोहे का बना बक्सा रखा हुआ था, शायद पिताजी रुपये इसमें रखा करते थे, मैंने धुल अपने ऊपर गिरने से बचाते हुए उसे खोला तो देखा एक ओर लक्ष्मी माता को फोटो लगा हुआ था, जिसका एक कोना गायब था लक्ष्मी माता के हाथ से सोने के सिक्के बरस रहे थे शायद पिताजी को लगता रहा होगा एकाध सिक्का पेटी में कभी गिर जायेगी ,संदूक के अंदर भी किताबो के सिवा कुछ नहीं था,एक किताब खोला तो उस पर रोशनलाल नाम लिखा था ,पिताजी के पिताजी की किताब थी,इसे संदूक के अंदर रखने का क्या फायदा, मूल्य ४ पैसे लिखा हुआ था,कुछ पढ़ना चाहा तो देखा शब्द ऐसे लिखे थे जैसे हाँथ से लिखे गए हो, लिखावट देख के पढ़ने का मन नहीं किया |

बचपन में किताब पढ़ने का बहुत शौख था मुझे पिताजी खुश होकर अक्सर किताबे ही लाया करते थे मेरे लिए ,मेरे अन्य सहपाठियों के पिताजी खुश होने पर मिठाई ले कर आते थे ,मै किताब देखकर खुश होता पर सोचने की कोशिश करता मिठाई क्यों नहीं ,फिर पिताजी को किताब पढ़ कर सुनाता और पिताजी सुनते-सुनते ही सो जाते शायद उन किताबो की कहानी बचकाना रहती होगी या शायद पिताजी बहुत थके रहते होंगे ,फिर मैं भी पिताजी की गोद में सो जाता ,पर सुबह उठने पर अपने को बिस्तर पर पाता ,पिताजी के खेत जाने के बाद नौकर संतु मेरी देखरेख करता ,देखरेख क्या मेरे साथ बच्चा बन कर खेलता ,पिताजी के शाम के आने के बाद भी बहुत बार वह हमारे सांथ ही बैठा रह जाता ,और जब मैं किताब पढ़ने लगता तो सबसे पहले वही सोता था ,संतु हमारे घर का ऐसा नौकर थे जो हर काम करता था ,साफ़-सफाई,खाना,दीवारों पर चुना पोतना,बाज़ार जाना, संतु ही मुझे स्कूल में भर्ती कराया,मास्टरजी से मिलने भी वही जाता, और शाम को पिताजी की रिपोर्ट करता |

अब मेरी किताबो की मोटाई बढ़ने लगी थी, अब संतु और पिताजी की बातें समझ आने लगी थी,पहले मैं संतु और पिताजी को बहुत ज्ञानी समझता था पर अब मास्टरजी सबसे ज्ञानी लगते थे,और किताबो का लेवल बढ़ने पर मैंने जाना मास्टरजी को कुछ नहीं पता है | फिर मैंने दुनिया के बारे में पढ़ा तब लगा विज्ञान भी अधूरा है,अब मुझे पढ़ने पास के शहर में भेजा गया | वह शहर ना होकर गाँव ही था,बस कुछ पक्के मकान थे कुछ पक्की सड़के थी और गरीबी हमारे गाँव से ज्यादा थी |

आखिर ३ सालो के अथक प्रयास के बाद मै ग्रेजुअट बन कर अपने घर पहुंचा, पिताजी और संतु मेरी सफलता से बहुत खुश थे ,लगा की जन्नत में आ गया हूँ, रोज पिताजी को अपने काम पर जाते देखता और शाम को आते देखता, पहले की तरह जिंदगी हो गयी सोच कर बहुत अच्छा लग रहा था, मैंने अपने पुराने मित्रों की ओर रुख किया तो पाया की सबकी शादी हो चुकी थी ,सभी अपने खेतों को कीडों से बचाने के लिए चिंतित थे, मैंने वापस घर की ओर रुख किया तो सारी किताबे मैं पढ़ चुका था, मेरी बाते समझने को कोई बचा नहीं था |

सो-सो कर थक जाता, लेटे–लेटे संतु को खाना बनाते हुए देखता, सुबह पिताजी को हड़बड़ी में काम पर जाते देखता, शाम को पिताजी घर आते, खाना खाते और सो जाते, मेरी बाते समझने वाला कोई नहीं था | कभी कभी पिताजी और संतु पर दया आती, कभी-कभी उनके निम्न जीवन स्तर और निम्न बुद्धि पर क्रोध आता | संतु और पिताजी की नजरे अब मुझे खा जाने वाली लगती, तंग आकार मैं घर से बाहर निकलता तो बाहर वाले मुझे ऐसे देखते जैसे मैं कोई उनसे अलग आदमी हूँ, एकांत की तलाश में निकलता तो लोगो के देखने से ऐसा लगता मानो वो शक कर रहे हो की मैं आत्महत्या तो नहीं करने जा रहा हूँ |

अब हर वो आदमी जो काम कर रहा होता अपना दुश्मन लगता और अब मैंने इस गाँव से मुंह छुपाने का मन बनाया, कई दिनों के बहस के बाद अंततः मैं गाँव छोड़ कर अकेले शहर की ओर निकला पड़ा, और एक-एक करके बड़े-बड़े शहरों की ओर कदम बढाता गया, और जब पीछे मुड कर देखा तो मैं एक सफल व्यक्ति के तौर पर जाना जाने लगा, शायद इसका श्रेय मेरी उपेक्षा को भी जाता है जिसने मुझे जिंदगी के उस कटु सत्य का अनुभव कराया जो किसी किताब से संभव नहीं हो पाता, ये दुनिया बड़ी अजीब है 100kg अनाज को बोरा जो उठा सकता है वो खरीद नहीं सकता और जो खरीद सकता है वो उठा नहीं सकता |


उजाला अगर पर्याप्त ना हो तो परछाई बना कर अँधेरा भी पैदा कर सकता है, अब फिर उपेक्षा का दौर शुरू होने को था पर इस बार व्यक्ति बदल गए थे, दूसरों से उपेक्षा तो आदमी सहन कर सकता है पर अपनो से उपेक्षा आदमी को कमजोर कर देती है, और पिताजी की ये उपेक्षा मेरी पत्नी के आने और मेरे आगे बढते जाने के साथ बढती गयी, जिन को सहारा बनना था वो अब दीमक की तरह आधार कमजोर करने में लगे थे ,जिस पसीने ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया वो पसीना अब बदबूदार लगने लगा, पिताजी की चिंता अब बंधन लगने लगी, हर बात अब उपदेश लगने लगी |

अब मै और मेरी पत्नी खुलकर कमियों की निंदा करने लगे, शर्म अब मिटने लगी, संतु तो ये सब सह ना सका और अपने गाँव वापस चला गया, और शायद यही एक कारण है की वो अब तक जिंदा बच पाया |

जिधर देखा उधर पर्वत नजर आया और हर शिखर की चाह दिल में लिए बढ़ता चला गया, हर शिखर पर पहुचने पर एक और शिखर नजर आया |पहले पिताजी की सायकल बाहर हुई फिर सायकल की तरह पिताजी के और भी सामान बाहर होने लगे और एक दिन पिताजी..

पुरानी बाते सोच-सोच कर थकने के बाद आखिर नींद आ ही गयी...सुबह की गर्मी से आँख खुली तो बीती बातें फिर पहले की तरह हवा हो गयी थी..अंजली ने सारा सामन पैक कर लिया था अब मुझे भी यहाँ रुकने का मन नहीं था...चाय की चुस्कियाँ लेता वापस जाने के बारे में सोच रहा था तब मैंने संतु को घर का काम करते देखा, उसके साथ एक बच्चा उसके हर एक काम को देख उससे सवाल पूछता जा रहा था...मैंने पहले तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया फिर मुझे याद आया ये उससे पुत्र का पुत्र होगा...अब मुझे उसके बारे में रूचि हुई तो पास जाकर बात सुनने की कोशिश करने लगा..

बच्चा हर बात पर क्यों क्यों करके सवाल पूछता जाता है...और संतु हर उटपटांग बात का जवाब देता जाता है...एक और कटु सत्य हिला कर रख देता है, जब बच्चा बार-बार अपने पिताजी से सवाल पर सवाल करता जाता है, पिता बिना झल्लाए हर सवाल को पहले से अधिक शांति से उत्तर दे कर समझाने की कोशिश करता है..लेकिन वही बच्चा बड़ा हो जाता और पिता कोई नयी चीजों को समझ नहीं पाता तो बेटा झाल्लाकर कर उसे जवाब देता है आप रहने दीजिए आपके समझ में नहीं आएगा..आज संतु के साथ उस बच्चे को खेलता देख पहली बार पिताजी और प्रभु को मन में साथ रखकर सोचने लगा और दोनों को बदकिस्मत जानकर अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ |

आज जिस अपनी सोच,बुद्धि,सोच पर गर्व किया करता था कितना उथला लग रहा था, अपने घमण्ड में ही चूर रहा कभी पिताजी को खुश नहीं रख पाया, पिताजी के मुस्कान से ही मेरी मुस्कान थी, पर ना जाने मैं कहां इस भौतिकता में खो गया और वो हाड मांस का महामानव जिसने मेरी खुशियों की ही हमेशा चाह की, मेरी नजरो में अदृश्य हो गया था, जाने क्यों युवा की ऐसी फितरत होती है उसे नित नयी चीजे अच्छी लगती है और क्यों पुराने का हमेशा तिरस्कार करता है, मैंने अपनी सोच में ही पिताजी को अपना दुश्मन बना लिया था, ना जाने वो उस मानव के दिल पर क्या बीतती होगी जब उसी का अंश उसका इतना अपमान करता होगा..

मैं आँगन के बीच पर आंसू और पसीने से लथपथ अपने चारो ओर बदहवास देखता जा रहा था, और सारा अतीत किसी चलचित्र की भांति मेरे आगे पीछे दौड रहा था, कही पिताजी का पसीने से भीगा चेहरा नजर आता, कही अपने पुत्र को खाता देख भूख के बावजूद संतुष्टी का भाव, कही भविष्य की चिंता करती सलवटे भरे चेहरे नजर आते तो कही मेरे कहानी पढ़ कर सुनाने पर सब कुछ मिल जाने वाला भाव लिए चेहरे नजर आते, और मेरे पास इन सब लम्हों की यादो को बटोर लेने के अलावा कोई चारा नहीं था |

सुख या दुःख के पल गुजर जाने के बाद किसी के हाथ नहीं आते बस यादें रह जाती है, रह जाता है किसी के द्वारा सिखाया गया जीवन दर्शन किसी के द्वारा जगाया गया आत्म बल जो आजीवन साथ रहता है |

  हम जैसे भी थे हमारे माता-पिता ने हमें स्वीकार किया,
हमारे माता-पिता जैसे भी है, क्या हमने उनको स्वीकार किया ??

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

किस पर विश्वास किया जाए..

                     कल सुबह खेल के मैदान से आने के बाद मैंने चाय का प्याला और न्यूज़ पेपर थामा और सोफे पर जा कर जम गया, आज हार जाने के कारण मन उतना प्रसन्न नहीं था, पर  दीवाली करीब है कहकर मम्मी ने साफ़-सफाई पर लगा दिया, मन में झल्लाहट तो थी ही उपर से किसी के गेट जोर-जोर से बजाने से और गुस्से में आ गाया, मुझे ही देखने जाना पड़ा की कौन है, मेन गेट से घर के बीच में आँगन है, कोई औरत थी, मांगने वाली थी दूर से देखकर अंदाजा लगाया, पास जाकर पूछने से अच्छा मैंने दूर से ही चिल्ला कर पूछा क्या है, कोई अगर भिखारी हो तो उसे एक कटोरी चावल जरुर देना पड़ता है, पर उसके हाथो में कोई कागज़ था देखकर समझ आ रहा था की कोई चंदा मांगने वाली है, वो जो बोल रही थी स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं दे रहा था, मजबूरन मुझे और आगे जाना पड़ा, वो लगातार कुछ बोले जा रही थी, फिर आधे रास्ते में ही मुझे माजरा समझ आ गया, वो बच्चा बीमार है करके मांगने आई थी |

जब भी कोई गेट पर मांगने आता है मेरे सामने धार्मिक फिल्मो और टीवी के सीरिअल्स का वो दृश्य सामने आ जाता है, जिसमे भगवान अपने भक्तो की परीक्षा लेने भिक्षु बनकर किसी के द्वार पर जाते है, और अगर वहा से कुछ मिलता है तो उसका सब अच्छा-अच्छा होता है, और कुछ लोग नहीं देते तो उसका बुरा हो जाता है, ये सोचकर मै चेहरा देखकर जानने की कोशिश जरुर करता हूँ, और ज्यादातर कुछ ना कुछ दे जरुर देता हूँ |

सामने वाले घर के गेट पर नजर गयी तो देखा एक और औरत वैसा ही कोई कागज़ लिए दरवाजा खटखटा रही थी, बीच रास्ते में ही उसके कागज़ को देखा पारदर्शी पोलीथीन से पैक था, मैला जरुर था, वो बार-बार उस कागज को देख लेने का आग्रह कर रही थी, उसका चेहरा देखा तो काफी दुःख से भरा जरुर नजर आ रहा था, पर उसके मांगने के तरीके नए नहीं थे, सो मुझे उसके पोलीथीन और और दूसरी औरत को देखकर बनावटी लगा सब |

मैंने ज्यादा पास जाये बैगेर ही उससे नहीं का इशारा करते हुए कहा हम लोग नहीं देंगे जाओ, पर वो लगातार कहती जा रही थी, मोर लैका डॉक्टर गुप्ता के अस्पताल में भर्ती हे, फेफड़ा सुखा गे हे ,थोडा मदद कर दे बाबू (छत्तीसगढ़ी में), मैंने जयादा बहस ना करते हुए अपने कदम वापस मोड लिए |

शाम लाइब्रेरी के लिए निकला, लाइब्रेरी जाने के रास्ते में डॉक्टर गुप्ता का अस्पताल पड़ता है, अचानक सुबह का वाकया याद आ गया, मैंने देखने की कोशिश की की वो औरत यहाँ है तो नहीं, उसे नहीं पाकर मन में संतोष हुआ, फिर रात को once upon in time in mumbai फिल्म आ रही थी, देखा एक औरत सुलतान (अजय देवगन) से अपने बेटे के बारे में बताते हुए भीख मांगती है और सुलतान दुवाओ में याद रखना कहकर हर बार खूब पैसे देता है, मुझे फिर वो सुबह का वाकया नजरों के सामने लगा, बार-बार अपने निर्णय को तर्क के तराजू में तौल रहा था |

फिर मैंने पाया की मैं भी क्या करता कितने लोगो पर विश्वास करके चंदा दिया जाए ऐसे में तो आम आदमी अपना घर ही डूबा बैठेगा, गणेश, दुर्गा, होली, अनाथालय आदि लोगो के नाम पर चन्दा दे-दे कर आम आदमी इतना अविश्वासी हो गया है अगर भगवान भी उसके द्वार पर आकार कहे की मैं भगवान हूँ तो आदमी सोचेगा फिर चंदा लेने वाला आ गया है, आज आम आदमी इन लोगो द्वारा अपने ठगे जाने को लेकर इतना सजग है की हर सही-गलत आदमी ठग ही लगता है, समाज के कुछ लोगो ने हमारे विश्वास का इतना गलत इस्तेमाल किया है, सही आदमी जिसे वास्तव में चंदे या मदद की जरुरत है कुछ मिले ना मिले ठोकर और तिरस्कार जरुर मिलेगा |

शायद इस बार भी मेरे लिखना निरर्थक हो जायेगा, प्रश्न तो जरुर किया है मैंने पर इसका उत्तर या समाधान खोज पाना मेरे बस की बात नहीं है, खैर मैंने प्रश्न तो चिट्ठाजगत पर ला दिया है, अब यहाँ के बुद्धिजीवी कोई ना कोई समाधान जरुर खोज लेंगे ये आशा करता हूँ |