गुरुवार, सितंबर 16, 2010

एक दिन देर से ही सहीं..

ल अभियंता दिवस था ,कुछ दोस्तों के मोबाइल पर सन्देश पहुचे पर उतने नहीं जितने इंजीनियरिंग करते समय आते थे, इंजीनियरिंग करते समय तो लगता था इंजीनियरिंग करने के बाद तो और इसे महत्त्व देंगे | ब्लॉग की दुनिया में नया हूँ अभी कुछ ही दिन हुए यहाँ ब्लॉग लिखते हुए,ये पहला इंजीनियर्स डे था ब्लॉग शुरू करने के बाद | सोचा था काफी पोस्ट आयेंगे चिट्ठाजगत पर भी पर सोचा नहीं था की ना के बराबर आयेंगे | समय की कमी के कारण मैं कुछ लिख भी नहीं पाया फिर सोचा चलो विकिपीडिया से कुछ कॉपी करके कुछ पोस्ट किये देता हूँ | पर वहाँ भी हिंदी क्लिक करने पर नाकामी हाँथ लगी,२-३ लाइने बस थी | फिर मैंने अन्य साइटस खंगाला तो भारत के महान अभियन्ता एवं भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के बारे में कुछ जानकारियां मिली जो प्रस्तुत कर रहा हूँ |

भारत में प्रतिवर्ष 15 सितंबर को अभियन्ता दिवस (इंजीनियर्स डे) के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन भारत के महान अभियन्ता एवं भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म दिन है। विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।

एक बार कुछ भारतीयों को अमेरिका में कुछ फैक्टरियों की कार्यप्रणाली देखने के लिए भेजा गया। फैक्टरी के एक ऑफीसर ने एक विशेष मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा, "अगर आप इस मशीन के बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको इसे 75 फुट ऊंची सीढ़ी पर चढ़कर देखना होगा"। भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने कहा, "ठीक है, हम अभी चढ़ते हैं"। यह कहकर वह व्यक्ति तेजी से सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा। ज्यादातर लोग सीढ़ी की ऊंचाई से डर कर पीछे हट गए तथा कुछ उस व्यक्ति के साथ हो लिए। शीघ्र ही मशीन का निरीक्षण करने के बाद वह शख्स नीचे उतर आया। केवल तीन अन्य लोगों ने ही उस कार्य को अंजाम दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि डॉ. एम.विश्वेश्वरैया थे जो कि सर एमवी के नाम से भी विख्यात थे।

दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में एमवी का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए एमवी ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।

उस वक्तराज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।

वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।

वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।





वह खास मुसाफिर-


यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, ‘जंजीर किसने खींची है?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने खींची है।’ कारण पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको कैसे पता चला?’ वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है।पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’

गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया।’ नाम सुन सब स्तब्ध रह गए। दरअसल उस समय तक देश में डॉ. विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी। लोग उनसे क्षमा मांगने लगे। डॉ. विश्वेश्वरैया का उत्तर था, ‘आप सब ने मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।’



चिर यौवन का रहस्य-

भारत-रत्न से सम्मानित डॉ. मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने सौ वर्ष से अधिक की आयु पाई और अंत तक सक्रिय जीवन व्यतीत किया। एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन का रहस्य क्या है?' डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है। और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?'


                                           अभियंता दिवस की शुभकामनाएँ एक दिन देर से सहीं



Source - www.pressnote.in ,www.pryas.wordpress.com,www.hi.shvoong.com,www.google.com

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

एक मुलाकात ऐसी भी..


मैंने ऑटो वाले को ५ रुपये दिए और बिना अगल-बगल देखे स्टेशन की और कदम बढ़ा दिए उसने ४.०० को आने को कहा था,मैंने अपनी हाथ घड़ी देखी जिसे मैं केवल परीक्षा देने जाता तब ही पहनता था,और अपने भाई से क्रिकेट बेट के बदले सौदा किया था, आज न जाने ऐसा लग रहा है की आज पारुल ने उसे नहीं बुलाया होगा |

अभी ३.५० हुए है स्टेशन खाली है न कोई ट्रेन, न वो हाथो से चलकर भीख मांगने वाला,न वो बच्चा जो बड़ी सी केतली और प्लास्टिक के कप लेकर लेकर चाय-चाय बिना साँस लिए जपता है,सो मै खाली सीमेंट की ठंडी बैंच में बैठ जाता हूँ ,और वो गरम कुर्सियाँ याद आ जाती है ,जब पारुल पराग को से कुछ बात करने के लिए प्यास का बहाना करके उसे ले जाती है,और मै पारुल के बैठे हुए जगह की ओर खसक जाता हूँ |
मैं पारुल और पराग बहुत अच्छे दोस्त थे लेकिन अब पारुल मेरी सिर्फ अच्छी दोस्त बन कर रह गयी जबकि पराग के काफी नजदीक पहुँच गयी ,कभी-कभी पराग अपने और पारुल के बारे में बताता है पर तब जब उसे मुझसे कुछ परामर्श लेना होता है या मीठी बातों में लम्बे समय तक डूबने के बाद उसका इन सब चीजो से मोह भंग होता हो जाता है तब |

अब पराग को मैं अब अच्छा नहीं लगता आजकल सब बदला-बदला सा लगता है ,नहीं बदली तो पारुल वो अभी भी कुछ नहीं समझती |

पारुल का घर भिलाई में है,और कॉलेज रायपुर में ,शाम ४.३० बजे की ट्रेन से घर वापस जाती है,और सुबह १० की ट्रेन से रायपुर पहुँचती है, मैंने कल ही कहा था कभी मिलने का प्लान बनाना बहुत दिनों से हम मिले नहीं हैं,और पारुल ने आज ही बुला लिया कहा की आज कॉलेज जल्दी खत्म हो जायेगा ,और कल से दीवाली की छुट्टियाँ लग जायेगी, पराग आ रहा है की नहीं उसके बारे में तो उसने नहीं कहा था,पहले कभी जब भी पारुल से हम मिलते तो पराग और मैं साथ ही जाते थे स्टेशन ,पर आज पहली बार मैं अकेले मिलने जा रहा था ,मैंने सोचा पराग मुझसे कांटेक्ट करेगा की चलना है ,जब उसने नहीं किया तो मैंने सोचा की हो सकता है पारुल ने मुझे अकेले बुलाया हो,और अगर पारुल कहेगी की पराग कहाँ है तो कह दूँगा की मैंने सोचा की तुमने उसे बताया होगा और मैं सीधे स्टेशन आ गया,पराग से कांटेक्ट करने का समय नहीं मिला |

खैर सीमेंट की बेजान कुर्सियों पर बैठे ४.१५ हो चुके थे मैंने एक बार रेलवे की घडी देखी फिर उसे अपने घडी से मिलान किया दोनों में ४.१५ हुए थे,,स्टेशन में भीड़ बढ़ने लगी थी,आस पास की कुर्सियां भी यात्रियों से भरने लगी थी,आज हो सकता है पारुल,पराग और उसके बीच में खटपट हो रही है उसके बारे में मुझे बताये इसलिए मुझे अकेले बुलाया हो और मैं तरह-तरह के हवाई महल बनाने लगता हूँ |

फिर लोग मेरे साथ वाले बेंच पर बैठने लगे थे, मन में क्रोध उमड़ा की कही और नहीं बैठ सकते | लोग जगह कम होने के कारण सट-सट कर बैठने लगे थे, बेंच पर लोगो के हलचल से मेरे सपने के खलल पड़ी ,मैं जो सोच रहा था बंद करके परेशान मुद्रा में उठ खड़ा हुआ और पारुल को देखने इधर-उधर नजर घुमाने लगा ,मेरे खड़े होते ही जो रिक्त स्थान बना था उस पर आस-पास के लोग फैल गए और रिक्त स्थान रिक्त नहीं रहा ,अब पास में जो महाशय खड़े हुए थे बेंच के एक कोने पर विराजमान हो गए,जिससे बेंच पर लोग मेरे खड़े होंने पर आराम से फ़ैल जाने पर जो संतुष्टी का भाव उत्पन्न हुआ था लोगो के चेहरे से जाता रहा |


अब गर्मी और भीड़ से मन विचलित होने लगा था | मन और सपने देखने को कर रहा था,कोई अच्छी जगह तलाशने के लिए नजरें इधर-उधर घुमाई पर कोई खाली जगह नजर नहीं आई ,४.२० हो चुके थे रेलवे की घडी में, ऐसा लग रहा था जैसे नींद से उठा हूँ ,लगा की चाय पी लेनी चाहिये ,स्टेशन से बाहर चाय पीने के लिए निकला ,चाय का प्याला लगाते ही उसकी क्वालिटी से एक बार फिर घर के चाय का महत्व समझ आ गया ,वो लम्हा याद आ गया जब मम्मी सुबह चाय बन गया करके उठाती और मैं कहता सोने दो ना क्या रोज-रोज चाय पीने के नाम से उठा देती हो | चाय का स्वाद अच्छा नहीं लगा और पारुल कही आ कर स्टेशन में मुझे ना ढूंढे इसलिए जल्दी-जल्दी उस द्रव को गले से उतारा जिसे चाय कहकर ३ रूपए मुझसे ऐठे गए थे |

अब तो हद ही हो गयी ४.२५ हो चुके हैं ,और कोई पता नहीं उसका ,अब पारुल के लिए मेरे मन में क्रोध उमड़ रहा था ,ट्रेन आने में ५ मिनट है ५ मिनट में क्या मिलूँगा उससे,फिर मैंने सोचा हो सकता है कॉलेज में कोई काम आ गया होगा ,खैर अब आएगी तो उसको अभी जाने नहीं दूँगा कहूँगा की ५.३० वाली ट्रेन से जाना |

४.२८ को भीड़ में पारुल का चेहरा दिखाई दिया ,वो जल्दबाजी में स्टेशन के अंदर आ रही थी ,थोड़ा सुकून मिला ,तभी उसके पीछे पराग आता हुआ दिखाई दिया ,अब मैं कुछ सोच सकने की हालत में नहीं था ,मेरे कानों में सुन्न करके एक आवाज़ बस आ रही थी ,भीड़ की आवाज़ ना जाने कहा खो गयी थी ,उन लोगों ने मुझे दूर से ही देख लिया,मैं उन लोगों को अपने ओर आते देख रहा था,याद नहीं की उस समय मेरा चेहरा कैसा लगा रहा था,तभी लोग एक ओर जल्दबाजी में चलने लगे एहसास हुआ की ट्रेन आ गयी ,अब वो लोग मेरे पास आ गए थे |

पारुल ने कहा मेरे वजह से काफी इंतज़ार करना पड़ा ना ,ये इसके चक्कर में तो है कहकर उसने पराग को अपने बैग से मारा ,इसको बोली थी ४ बजे स्टेशन में आना तो ये साहब कॉलेज कैन्टीन में ही पहुच गए ,और जल्दी चलने बोली तो बोलता है तेरे कॉलेज कैन्टीन में आया हूँ कुछ खिलाएगी नहीं क्या,एक प्लेट समोसा खाया फिर माना ये ,फिर मैं भागते-भागते आयी हूँ |

बोलते-बोलते ट्रेन के दरवाजे तक पहुँच गयी पारुल हमारे साथ फिर कहा और सुना कैसा है तू? उसने मुझसे पूछा मैं कुछ बोलते के लिए अपना मुंह ही खोला की ट्रेन का जोरदार हार्न बजा और पारुल ट्रेन में चढ़ी और ट्रेन चलने लगी ,फिर उसने कहा अब दीवाली के बाद मिलेंगे बाय, हैप्पी दीवाली |कुछ ही सेकंड्स में पारुल नजरों से ओझल हो गयी |

मैंने अपने हाथों में देखा कुरकुरे का पैकेट जो मैंने पारुल को पसंद है करके ख़रीदा था मेरे हाँथ में ही रह गया और मेरी असफलता की कहानी कह रहा था , मैं और पराग अपने पीछे की ओर बने बैंच पर एक-एक कोने पर बैठ गए ,ये हमारे कॉलेज के पीछे बना छोटा सा स्टेशन था,जहाँ ट्रेन जाने के बाद एक बार फिर सन्नाटा हो गया था ,ट्रेन से उतरे लोग पैदल कॉलेज के गेट तक पहुँच गए थे और अभी भी आँखों से ओझल नहीं हुए थे |

आज ऐसी स्थिति आ गयी थी हम दोनों अपने-अपने किये अपराध से वाकिफ थे और अलग-अलग दिशाओं में देख कर शायद ये सोच रहे थे की किसका अपराध ज्यादा बड़ा है कौन पहले सन्नाटा तोडेगा | हम दोनों काफी देर शांत बैठे रहे ,मैं भी सोच नहीं पा रहा था की क्या कहूँ ,शायद पराग को अपने और पारुल के बीच हो रहे गडबड को ठीक करने का यही सही वक्त लगा होगा और वो कुछ एकांत में बात करना चाहता होगा इसलिए वो अकेले पारुल के कॉलेज चला गया होगा,मुझे उन लोगों के बीच आ जाने पर आत्मग्लानी महसूस हुई और लगा इन सबसे दूर चला जाऊं,पर जाता तो जाता कहाँ ?


बिना बोले काफी देर बैठे रहे ,अचानक हाथ में कुरकुरे के पैकेट का अहसास हुआ,मैंने पैकेट खोल कर उसके तरफ बढ़ा दिया ,उसने कहा कब चलना है घर ,कॉलेज की छुट्टियाँ तो लग ही चुकी थी ,हम दोनों का घर एक ही शहर में था और घर गए काफी दिन हो चुके थे दोनों को, घर के नाम से हमारे बीच धीरे-धीरे तनाव के बादल छंटने लग गए और हम अपनी छुट्टियों की प्लानिंग करने में व्यस्त हो गए | स्टेशन में बात करते-करते काफी समय गुजर गया ,पिछली आँधी का नामोनिशान नहीं था ,माहौल खुशनुमा हो गया ,दिन के ढल जाने से ठंडकता का अहसास हुआ ,पंछियों के वापस घर आने की खुशी भरी चहचहाहटो से अन्य आवाजें दब गयीं और एक अजीब मानसिक शांति के अहसास के साथ मैं अपने कमरे में वापस लौटा अपनी किताबों पर से धूल हटाया और मेज पर किताबों के पन्ने उलटने लगा |

उस लम्हे को बुरा मत कहो ,जो आपको ठोकर पहुंचाता हो,


बल्कि उस लम्हे की क़द्र करो,क्योंकि वो आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है |

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

पहले अपने मन को जीतो !

एक व्यक्ति एक प्रसिद्ध संत के पास गया और बोला गुरुदेव मुझे जीवन के सत्य का पूर्ण ज्ञान है | मैंने शास्त्रों का काफी ध्यान से मैंने पढ़ा है | फिर भी मेरा मन किसी काम में नही लगता | जब भी कोई काम करने के लिए बैठता हूँ तो मन भटकने लगता है तो मै उस काम को छोड़ देता हूँ | इस अस्थिरता का क्या कारण है ? कृपया मेरी इस समस्या का समाधान कीजिये |

संत ने उसे रात तक इंतज़ार करने के लिए कहा रात होने पर वह उसे एक झील के पास ले गया और झील के अन्दर चाँद का प्रतिविम्ब को दिखा कर बोले एक चाँद आकाश में और एक झील में, तुमारा मन इस झील की तरह है तुम्हारे पास ज्ञान तो है लेकिन तुम उसको इस्तेमाल करने की बजाये सिर्फ उसे अपने मन में लाकर बैठे हो, ठीक उसी तरह जैसे झील असली चाँद का प्रतिविम्ब लेकर बैठी है |

तुमारा ज्ञान तभी सार्थक हो सकता है जब तुम उसे व्यहार में एकाग्रता और संयम के साथ अपनाने की कोशिश करो | झील का चाँद तो मात्र एक भ्रम है तुम्हे अपने कम में मन लगाने के लिए आकाश के चन्द्रमा की तरह बनाना है, झील का चाँद तो पानी में पत्थर गिराने पर हिलाने लगता है जिस तरह तुमारा मन जरा-जरा से बात पर डोलने लगता है |

तुम्हे अपने ज्ञान और विवेक को जीवन में नियम पूर्वक लाना होगा और अपने जीवन को जितना सार्थक और लक्ष्य हासिल करने में लगाना होगा खुद को आकाश के चाँद के बराबर बनाओ शुरू में थोड़ी परेशानी आयेगी पर कुछ समय बात ही तुम्हे इसकी आदत हो जायेगी |

निष्कर्ष :- मन के हालत के चलते इन्सान को अपनी प्रतिभा का सही उपयोग करना सीखना चाहिए बजाये मायूस होकर बैठने के |