शनिवार, दिसंबर 04, 2010

क्या कहूँ..

बहुत दिनों से दुनियादारी में व्यस्त रहा तब लगता था कब जान छूटे तो जा कर ब्लोगिंग में शरण पाऊं, दूर रहने पर अजीब से उदासी छा गयी थी, जब वापसी हुई यहाँ तो २-३ दिन की हालत सही थी फिर मन उदास होने लगा, ब्लॉग लिखने का मन बना तो पहले अपना ही ब्लॉग पढ़ लिया और लगा की शर्म के मारे डूब मरें, जिन पोस्ट को काफी एक्साइटमेंट के साथ लिखा था जिन पर लोगो ने बहुत सुन्दर, बहुत बढ़िया, और तरह-तरह की टिपणियां कर रखी थी, बहुत अजीब प्रतीत हो रहा था, लगा की झट अपना नाम बदल दें और फोटो हटा दें थोड़ी देर गम के अँधेरे में पड़े रहें, थोडा उससे भी बोर हुए तो तस्सली देने को मन हुआ, वैसे भी अपने को कौन पढता है, और चलो कम से कम हिंदी के प्रचार में योगदान तो दिया, पर लगा इतने से भी काम नहीं चलेगा थोडा और सोचना होगा तो सोचा चलो अपने प्रोफाइल में ये लिख दिया जाए की मै कोई लेखक या कवि नहीं बस तन्हाई को दूर करने के लिए बातें बाँट लेता हूँ, निराश तो था ही मै, पर देखा किसी ब्लॉग पर लिखा था “जो तुम में है, वह संसार में और भी है” पहले पढ़ा तो बकवास लगा फिर और ब्लोग्स देखते जा रहा रहा था चिट्ठाजगत पर थोड़ी देर में लगा की बात सही है (ही ही ही )

बहुत अच्छी और बहुत बेकार में बहुत कम ही अंतर होता है,
पता नहीं मै नहीं समझ पाता या लोग मुझे नहीं समझ पाते |

वैसे भी आशावादी लोगो का जमाना है तो मै क्यों निराश होने लगा, हम रोज मनुष्य को मरते कटते देखते है फिर भी ऐसा लगता है ऐसा हमारे साथ नहीं होगा, चाहे कोई मर जाए कितना भी करीबी क्यों ना हो खाना-सोना के बारे में सोचना ही पड़ता है | सोचते-सोचते लगा चलो एक पोस्ट की संख्या ही बढ़ा दी जाए, ये सोचना बहुत बुरी चीज है, कभी रात के ३ बजे ये क्रिया होने लगती है तो कभी गुसलखाने में, कई लोग घर के अंदर सोचते है तो कोई सोचने के लिए बाहर भी जाता है, आप अच्छे से ध्यान देंगे तो ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो ना अंदर सोचते है ना बाहर, मतलब घर के चौखट में बैठकर बकायदा सोचने वाली मुद्रा लिए, जैसे कोई रामदेव बाबा का बताया आसन हो, और ट्रेन में अगर भूले भटके पहूँच गए तो लगेगा सोचने का मौसम आ गया है, सोचने वाले लोग सोच भी कितना लेते है, कभी दीपिका के साथ अन्टार्टिका जाने की सोच लेते है, तो कभी अभी-ऐश के बीच आ जाते है, तो कभी बेचारे अमिताब के साथ ही न्यूज़ीलैण्ड पंहुच जाते है, टेलिविज़न पर एक जनाब “खेले हम जी जान से” फिल्म के स्टाफ के साथ सवाल-जवाब कर रहे थे, उन्होंने पूछा की आप को १३ की उम्र में पंहुचा दिया जाए तो आप क्या करेंगे, किसी ने कहा चेस खेलेंगे किसी ने कहा पढाई करेंगे, एक जनाब काफी गंभीर दिखे उन्होंने कहा सोचेंगे, अब उनसे और पूछा गया की क्या सोचेंगे, ये तो सोचने की हद ही हो गयी अभी कैसे सोचे की तब क्या सोचेंगे, कुछ भी हो लेकिन सोचने की ताकत को तो मानना पड़ेगा, कभी आदमी को बुलंदियों पर पंहुचा देती है कभी पागल बना देती है, वैसे मै तो बचपन से ही सोचते आ रहा हूँ, जब मेरे साथी सोच नहीं सकते थे की सोचना क्या होता है, खुशी होती थी की मै कब से सोचता चला आ रहा हूँ करके, पर एक दिन मोबाइल पर sms पढ़ कर वह भी जाती रहा, वह कुछ इस प्रकार था क्या आप जानते हैं कौन है जिसने जन्म से पहले ही सोचना शुरू कर दिया था?? जन्म से पहले शब्द सुनने पर बस एक ही बात जेहन में आयी अभिमन्यु, पर ऐसा तो वर्णन नहीं था की वह सोचता भी था, चलो देखते है कौन था कह कर जब स्क्रीन स्क्रोल किया तो लिखा था द ग्रेट रजनीकांत | यह भी सोचना बड़ा रोचक होगा जब रजनीकांत ने ऐसे मेसेज देखे होंगे तब क्या सोचा होगा, अब अतिशयोक्ति वर्ग के फिल्मो पर क्या असर पड़ेगा यह भी एक सोचने का विषय ही है |खैर अब लगता है सोच-सोच कर और लोगो को सोचवा-सोचवा कर हमने काफी अपनी और आपकी बिजली बर्बाद कर ली |अब एक आखिरी जुल्म मुझे आपके ऊपर कर लेने दीजिए |

आज सुबह आँख खुलते ही आँगन पर देखा था तुझको,
नहाने के बाद भी आँखे मलती खड़ी थी तुम,
शाम को देखा तो तितलियाँ ढूंढ रही थी तुझको,
किसी ने तोडा होगा गुलाब का वह नया फूल,
आज वेलेंटाइन डे हैं ना |

एक और जुल्म मेरी खातिर सह लीजिए ना प्लीज..

सुबह देखा तो मेरा रुमाल नदारद था,
शायद कल शाम की बारिश उडा ले गयी होगी,
अभी यादों की महल फीकी नहीं पड़ी थी उसमे |

बस ये आखिरी..

आईने को भी किसी चेहरे को देखने का मन होता होगा,
उसे भी किसी सूरत से प्यार होता होगा,
आईने के टूटने का कोई और कारण निकल लेते है लोग,
दरअसल वो कम्बक्त भी किसी का मारा होता है,
जो टूट कर कम से कम हमदर्दी तो पा लेता है |

पाठकों से अनुरोध है की क्या-कहूँ जैसे कमेन्ट ना किया करें समझ नहीं आता हमको ये कमेन्ट, इससे पता ही नहीं चलता की बहुत अच्छा लिखा है इसलिए क्या-कहूँ कह रहे है या उनको हमारी रचना कूड़े का ढेर लगी जिसके बदबू से नाक के भार क्या-कहूँ कह रहें है |

मंगलवार, नवंबर 30, 2010

जब गांधीजी ने मार खिलवा ही दिया था..

ब्लॉग पर पिछले पोस्ट को लिखे काफी समय गुजर चुका है,वैसे तो जिस दिन पिछला ब्लॉग पोस्ट किया था उस दिन से ही इस पोस्ट की प्लानिंग हो गयी थी, पर समय ऐसा रहा की कुछ लिख नहीं पाया, त्यौहार फिर इंटरव्यू ,सब निपटा के फिर अभी अपने पुराने सीट पर बैठा हूँ |

बात उस समय की है जब मै क्लास ७ में पढता था, स्कूल के सामने बहुत बड़ा मैदान था जहाँ हम सब लंच की छुट्टी में खेला करते,और उस मैदान के बगल में जिसका घर था उसके मालिक का और हमारे स्कूल का विवाद था, उस घर के पिछवाड़े में एक और खाली मैदान था जो हमरे स्कूल के भवन से सटा हुआ था दोनों पक्ष का कहना था की ये जगह उनकी है, और सब बच्चे इस विवाद से बेपरवाह उस मैदान में भी खेला करते और प्राचार्य महोदय रोज सुबह प्रार्थना के वक्त अपने भाषण में हमें वहां ना खेलने को कहते |

शनिवार का दिन था, शनिवार को सहायक वाचन की दो क्लास लगती थी जिसमे इस साल गाँधी जी के बारे में पढाया जाना था, ठण्ड का मौसम था बाहर खेल भी चल रहा था मैंने खेलों में भाग नहीं लिया था और जिन-जिन लोगों ने खेलों में भाग नहीं लिया था वो सब क्लास में बैठे थे,करीब ८ -१० छात्र रहे होंगे और करीब ३-४ छात्रायें रही होंगी, बहुत से छात्र बाहर थे इसलिए शिक्षक कोई नयी चीज ना पढाते हुए सबको अपने किताब पढ़ने की हिदायत दे राखी थी और खुद शिक्षक अपने रजिस्टर में कुछ हिसाब किताब करने में लगे थे |

मैंने आस पास नजरे दौडाई सामने वाले बेंच के दो लडके ज़मीन पर चाक से बैठे-बैठे ही फुटबाल खेल रहे थे, उनके जूतों की टकराने की आवाज़ और दबी आवाज़ में हँसने की आवाज़ कभी तेज हो जाती तो मास्टरजी के डर से वो थोड़ी देर खेल रोक देते और फिर एक युद्ध की तरह एक दूसरे पर विजय पाने की कोशिश करते, उनके युद्ध से चाक के कई टुकड़े हो चुके थे और हर टुकड़े को लेकर एक नया खेल शुरू हो जाता,और लोगो को देखा तो वो चने की लड़ाई में व्यस्त थे,मानो कक्षा उनके लिए युद्धभूमि बन गयी हो, बेंच में छुप कर अगले पर चने रूपी बम की बारिश कर रहे थे, शोर बढ़ता जा रहा था, अब मास्टरजी के काम में खलल पढ़ी सजा तो मिलेगी ही, अब सभी सैनिक ज़मीन पर घुटने टेके हुए थे, अब सन्नाटे में बाहर खेलो की आवाजे स्पस्ट सुनाई देने लगी, मैंने आस पास के लडको को देखा तो वे मास्टरजी के सन्नाटे में सेंध लगाने की कोशिश में दिखे, सैनिको का हाल देख कर मैंने किताब का सन्नाटा तोडना ज्यादा फायदेमंद समझा, मैंने अपने आँखे किताब पर गडा दी, किताब गांधीजी के बचपन से शुरू हुई, मुझे गांधीजी के साधारण श्रेणी के विधार्थी होने पर आश्चर्य लगा और थोडा अपने नम्बरों पर गर्व भी, फिर गाँधी जी के बारे में पढ़ा उन्हें बचपन में बातें करना पसंद नहीं था, मुझे भी, अब मैंने गाँधी और अपनी तुलना करना चालू कर दिया, और इसमें मुझे बहुत आनंद आने लगा, गाँधी जी के बचपन की बातें उनका विवाह उनकी हाईस्कूल की पढाई, उनके सत्य के अनुप्रयोग सब रोचक लगने लगा, मैं किताब में इतना खो गया की आस पास की कोई सुध नहीं रही, लंच की बेल बजी तो मेरा ध्यान टुटा, मैंने किताब बंद की और गांधीजी के सत्य के प्रयोग के बारे में सोचने लगा, गाँधी जी के चोरी और प्रायश्चित की बात सोच कर मेरा मन और भी निर्मल होता गया |

जाड़े के दिन थे अंदर सर्दी लग रही सो बाहर निकला, बाहर कोई गेंद से खेल रहा था, कोई किसी से रेस लगा रहा था, सुनहरी धुप थी, धुप में कोमलता का अहसास हो रहा था, गांधीजी को बचपन से ही टहलने की आदत थी सोच कर मैंने भी विवादित मैदान में टहलना शुरू किया, गांधीजी की बातें मन में घुमड़ रही थी, दूसरों की क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए ऐसे मौसम में बहुत अच्छा अहसास हो रहा था, टहलते हुए जब मैं विवादित मैदान के दूसरे पक्ष के घर के पास पंहुचा तो देखा उनके घर पर जाम के पेड़ पर बहुत से फल लगे हुए थे, कुछ बच्चे फल के लालच में उन पर पत्थरों से निशाना साध रहे थे, उनकी निशानेबाजी मुझे रोचक लग रही थी सो मेरे टहलने की गति यहा पर कम होती गयी, हालांकि मुझे फलों का कोई लालच नहीं था पर मेरे मन को पत्थरों का पेड़ के पत्तों से टकराना और फल सिर्फ हिल के रह जाना फिर बच्चों का पत्थर लाना फिर से कोशिश करना सुखद लग रहा था | तभी घर से एक औरत निकलती है और बच्चो को पकड़ने का असफल प्रयास करती है, मै पुनः अपने गति पर आ जाता हूँ और कहीं और नया देखने का प्रयास करता हूँ, और औरत के बच्चों को डांटने की आवाज़ कान में आती रहती है पर मै इससे बेपरवाह अपनी धुन में टहलता हुआ आगे बढ़ता हूँ और मेरे ध्यान से औरत वाली बात उतर जाती है और मै टहलते हुए उसके घर के सामने से गुजर रहा था तभी मुझे जमीन पर एक फल गिरा हुआ दिखा, पहले तो बिना कुछ सोचे मैं आगे बढ़ने लगा पर गांधी वाली निर्मलता की ठंडकता लगते ही बिना ज्यादा इस पर विचार किये मैंने उसे उस औरत को वापस करने की निश्चय किया, फल उसके घर के सामने की पड़ा हुआ था द्रुतगति से उस फल तक पंहुचा और झुक कर फल को उठाया तो कुछ शोर सुनाई दिया ,देखा तब सही वस्तुस्थिति का बोध हुआ की वो फल सभी बच्चो के नजर में था सभी उसकी ताक में थे पर औरत के मैदान में होने के कारण कोई वहां तक पहुच पाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, बच्चे फल हाथ से जाने से नाखुश थे की हमारी मेहनत और फल किसी और को, सो उन्होंने चिल्ला कर औरत को बताना चाहा और मै फल वाले जगह से सही तरीके से फल हाथ में ले कर खड़ा भी न हो पाया था की वह औरत द्रुतगति से मेरे सामने पहुच गयी थी, उसने गुस्से से मेरा हाथ मरोड़ा डर से और उसकी ताकत से मेरे हाथ से फल तो छुट गया और मैंने बचने हेतु सफाई देना चाहा की मैं ये फल आपको देना चाहता था लेकिन बच्चो की शोर से और उस महिला की डांट से जो भी मेरे मुख से निकला वो शायद ही किसी के कर्ण पटलो को स्पर्श कर पाया हो |

अब महिला ने मेरे हाथों को मरोड़े हुए मेरे न चाहते हुए भी शाला परिसर में प्रवेश किया, मै जैसे अपने आप घसीटा चला जा रहा था, उस गिरे हुए फल क्या क्या हुआ पता नहीं पर ऐसी विकट परिस्थिति की मैंने कभी कल्पना नहीं की थी, कुछ बच्चे उत्सुकता वश पीछे पीछे चले आ रहे थे हाँ पर उस महिला से पर्याप्त दुरी बनाते हुए, महिला बहुत गुस्से में थी उसने मुझे प्राचार्य के कमरे में ले जा कर ही मुक्त किया, और प्राचार्य से भी ऊँची आवाज़ में शिकायत करने लगी, उनके बीच क्या क्या बात होने लगी ये तो याद नहीं पर गलती स्कूल वालो की थी इसलिए प्राचार्य महोदय उनको आश्वासन देने में लगे थे, महिला जब थोड़ी ठंडी होने लगी तब प्राचार्य जी ने मुझे बाहर इंतजार करने को कहा और महिला को बैठने को कहा, मैंने कोई गलती नहीं की थी तब भी मेरा चेहरा अपराधीयों की तरह लटक गया था, मै जहाँ घंटी लटकी होती है वहां बेंच पर बैठ गया इस पर चपरासी के सिवा मैंने उसी को बैठा देखा है जिसे खेलते हुए कोई चोट लग जाती थी , चपरासी मरहम पट्टी के लिए बच्चो को इसी बेंच पर बिठाता था |

अभी भी बच्चो का झुण्ड दुरी बना कर मुझे उत्सुकता वश देखे जा रहा था, मैंने झुण्ड में कोई चेहरा पहचाने की कोशिश की तो सुनील नजर आया, जो की नम्बरों में मुझसे पीछे रहता था पर जब भी मै स्कूल नहीं जाता था उसी की कॉपी ले कर आता था, सुनील के साथ ही एक और विक्की जिसे मार खाने का काफी अनुभव था मेरे करीब आया, मैंने पहले न तो कभी ऐसी स्थिति देखी थी न सुनी थी पर विक्की ने बताया की परसों भी एक लड़के को वो महिला पकड़ लायी थी उस समय पटेल सर के पास उसने शिकायत की थी और पटेल सर ने उस बच्चे को खूब मारा और उसके घर वालों को बुलवाया भी, मेरी तो मार के नाम से ही घिग्घी बंध गयी, पहले अभी की तरह बच्चों को मारने पर इतना बवाल नहीं उठता था, मैंने कभी सजा का सामना किया नहीं था, विक्की आगे बताने लगा प्राचार्य कभी किसी बच्चे को मारते नहीं पर वो दूसरे सर को सजा देने का काम सौप देते हैं, शायद पटेल सर को ही दे दे, पटेल सर के मार के नाम से मेरे पैर ठन्डे पड़ गए, दिल जोरो से धड़कने लगा और घर में जो बेज्जती उसका डर अलग |

अब लंच खत्म होने की पहली बेल बज चुकी थी और सारे बच्चे जो झुण्ड लगाये खड़े थे अब जा चुके थे अब भी सुनील मेरे पास खड़ा था और दूसरी बेल बजते ही वो भी चला गया, और अब ऑफिस के गलियारे में सन्नाटा छा गया, कुछ-कुछ सर लोगो की पढाने की आवाज़ आने लगी, इस समय मैं पहले कभी क्लास से बाहर नहीं था, अब वो महिला भी संतुष्ट भाव चेहरे में लिए चली गयी अब मेरी पेशी थी, एक बार फिर पैरों में बहुत ठण्ड का अहसास हुआ और मैंने अपनी आखें बंद करके सोचा की कैसे प्राचार्य महोदय को समझाया जाए की मैंने पत्थर नहीं मारा था, मेरे मन में तरह तरह के सवाल आने लगे की अगर सीधे पटेल सर को मारने को कह दे तो और पटेल सर कुछ सुनने को ही इंकार कर दे तो, अब मैंने फिर डर के मारे आँखे बंद किया तो महात्मा गाँधी के शब्द मेरे कानो में गूंजने लगे “डर मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन होता है” जब मैंने कोई गलती नहीं की है तो डरना क्या ,अब मैंने डर को अलविदा कह दिया और क्या कहना है वह सोचने लगा |

सत्य के प्रयोग के उधेड़बुन में पता नहीं चला कब एक के बाद एक तीन विषयों की क्लास निकल गयी और छुट्टी की घंटी बज गयी और सुनील और विक्की को अपनी आँखों के सामने पाया, दोनों मेरी किस्मत पर अचम्भा करते हुए कह रहे थे तू बच गया अब चल घर,कल सन्डे है और सोमवार तक सब भूल जायेंगे,मै इससे पहले की कुछ समझ पाता मेरा बैग किसी ने मेरी पीठ पर चढा दिया और कुछ न करते करते हुए भी मैदान तक पहुच गया, अब लगा जैसे सिर की नसों में जैसे दिल उतर गया हो ,एक ओर बिना सच-झुट बोले बिना मार खाए साफ़ बच निकलने का मौका था तो दूसरी ओर प्राचार्य की आज्ञा का पालन कर मार खाया जा सकने का विकल्प था, मैंने यह बात दोस्तों से पूछनी की सोची तो कह नहीं पाया और मेरे बुद्धूपन पर मजाक उड़ने का भी भय था, स्कूल के गेट तक पहुचते-पहुचते मेरा निर्णय हो चुका था मैं रुक कर वापस मुड़ने को हुआ तो मित्रों की सवाल भरी नजर मेरे चेहरे पर पड़ी और मैंने झट कहा शायद किताब छुट गयी ले के आता हूँ और वापस स्कूल की ओर मैदान में दौड लगा दी, और जा कर प्राचार्य से सब कुछ कह दिया, उसके बाद प्राचार्य ने मुझसे क्या कह कर जाने को कहा ये शायद डर के कारण याद नहीं रहा मुझे पर शायद खुश ही हुए थे वो ,मैंने वापस आ कर ये बात घर में भी बताई पर शायद कोई समझ न सका, मित्रों को बताने की बात तो बहुत दूर थी बस मेरे मानस पटल पर ये बात किसी फिल्म की तरह आज भी अंकित है |

आज भी यह घटना मेरे लिए बहुत से जगहों पर प्रेरणा स्त्रोत की तरह है | इस घटना को लिखने के दौरान एक बार फिर से “सत्य का प्रयोग” पढ़ डाला | वैसे तो सत्य की महत्ता का अहसास आगे और भी हुआ पर पोस्ट ज्यादा लंबा खिचता जा रहा है, फिर कभी आपके सामने लाऊंगा उसे |

२४ नवम्बर २०१० को हमारे विद्यालय के शिक्षक श्री एस.आर.साहू का सड़क दुर्घटना में निधन हो गया, साहू सर हमें फिजिक्स और मैथ्स पढाया करते थे, उनके मार्गदर्शन ने अनेक छात्रों का भविष्य उज्वल किया है आईये हम उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें |
                       सजल नेत्रों और भारी मन से विनम्र श्रद्धांजलि !

गुरुवार, अक्तूबर 14, 2010

जाने क्यों बदल गया मैं..

“जब तक व्यक्ति को ये महसूस होता है की शायद उसके पिता सही थे तब उसके साथ उसका पिता नहीं पुत्र साथ होता है”        -चार्ल्स वोर्ड्सवोर्थ

दूर कहीं से आवाज़ आ रही है, शायद गणेश विसर्जन वाले हैं ,प्रभु और अंजली शायद गाँव में असहजता झेल के इतने थक गए हैं की बिस्तर पर लेटते ही उन्हें नींद आ गयी, आज ना जाने कितने सालों बाद ऐसी नौबत आई है की सोना चाह कर भी नहीं सो पा रहा हूँ, काफी देर सोने की कोशिश के बाद गुस्से से उठ कर डब्बे जैसे कमरे से निकलता हूँ |

मैं अपनी पत्नी और बच्चो को गाँव लाकर ये दिखाना चाहता था मैंने कैसे दलदल में रह कर अपनी जिंदगी बनायीं है, शहर और अपनी महानता साबित करने के लिए छुट्टी मल्टीनेशनल कंपनी से ली थी |

कमरे से बाहर निकलते ही सामने तुलसी का पौधा था, जिसे माँ रोज सुबह पानी पिलाती थी, और माँ के जाने के बाद पिताजी ये जिम्मेदारी निभाते थे ,माँ के बारे में इसके अलावा बस यही याद है की हमेशा पिताजी और मुझे जबरदस्ती खूब सा खाना परोस देती थी, तुलसी के तीनों और कमरे बने हुए थे,एक ओर गायों के रहने के लिए, एक ओर पिताजी और मेरे रहने के लिए, एक ओर बने कमरे में पिताजी जाने क्या हिसाब किताब किया करते थे ,उस कमरे में मै काफी कम ही गया था, पिताजी उस कमरे का ताला हमेशा काम करने के बाद बंद कर देते थे, बचपन में मुझे लगता की उसके अंदर बहुत कीमती सामान रखा होता होगा पर पिताजी के गुजरने के बाद देखा था कुछ पुराने बक्से थे मेरी कुछ पुरानी किताबे थी |

कमरे के बाहर एक आइना था जो की एकमात्र था,इसी आयने के सामने मैं बचपन में अलिफ़ लैला के पात्रों की नकल करता था, अब तो आईने में काले-काले दाग हो गए हैं इसमें अपना शक्ल देखने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है, कमरे की चाबी इसके बाहर ही लटकी हुई मिली, अंदर गया तो संदुक नजर आई थोडा धुल हटा के देखा तो हारमोनियम था, संतु बताया करता जब मालिक की शादी नहीं हुई थी तो कभी बजाया करते थे, पिताजी से पूछने पर हमेशा डांट दिया करते, उसके बगल में लोहे का बना बक्सा रखा हुआ था, शायद पिताजी रुपये इसमें रखा करते थे, मैंने धुल अपने ऊपर गिरने से बचाते हुए उसे खोला तो देखा एक ओर लक्ष्मी माता को फोटो लगा हुआ था, जिसका एक कोना गायब था लक्ष्मी माता के हाथ से सोने के सिक्के बरस रहे थे शायद पिताजी को लगता रहा होगा एकाध सिक्का पेटी में कभी गिर जायेगी ,संदूक के अंदर भी किताबो के सिवा कुछ नहीं था,एक किताब खोला तो उस पर रोशनलाल नाम लिखा था ,पिताजी के पिताजी की किताब थी,इसे संदूक के अंदर रखने का क्या फायदा, मूल्य ४ पैसे लिखा हुआ था,कुछ पढ़ना चाहा तो देखा शब्द ऐसे लिखे थे जैसे हाँथ से लिखे गए हो, लिखावट देख के पढ़ने का मन नहीं किया |

बचपन में किताब पढ़ने का बहुत शौख था मुझे पिताजी खुश होकर अक्सर किताबे ही लाया करते थे मेरे लिए ,मेरे अन्य सहपाठियों के पिताजी खुश होने पर मिठाई ले कर आते थे ,मै किताब देखकर खुश होता पर सोचने की कोशिश करता मिठाई क्यों नहीं ,फिर पिताजी को किताब पढ़ कर सुनाता और पिताजी सुनते-सुनते ही सो जाते शायद उन किताबो की कहानी बचकाना रहती होगी या शायद पिताजी बहुत थके रहते होंगे ,फिर मैं भी पिताजी की गोद में सो जाता ,पर सुबह उठने पर अपने को बिस्तर पर पाता ,पिताजी के खेत जाने के बाद नौकर संतु मेरी देखरेख करता ,देखरेख क्या मेरे साथ बच्चा बन कर खेलता ,पिताजी के शाम के आने के बाद भी बहुत बार वह हमारे सांथ ही बैठा रह जाता ,और जब मैं किताब पढ़ने लगता तो सबसे पहले वही सोता था ,संतु हमारे घर का ऐसा नौकर थे जो हर काम करता था ,साफ़-सफाई,खाना,दीवारों पर चुना पोतना,बाज़ार जाना, संतु ही मुझे स्कूल में भर्ती कराया,मास्टरजी से मिलने भी वही जाता, और शाम को पिताजी की रिपोर्ट करता |

अब मेरी किताबो की मोटाई बढ़ने लगी थी, अब संतु और पिताजी की बातें समझ आने लगी थी,पहले मैं संतु और पिताजी को बहुत ज्ञानी समझता था पर अब मास्टरजी सबसे ज्ञानी लगते थे,और किताबो का लेवल बढ़ने पर मैंने जाना मास्टरजी को कुछ नहीं पता है | फिर मैंने दुनिया के बारे में पढ़ा तब लगा विज्ञान भी अधूरा है,अब मुझे पढ़ने पास के शहर में भेजा गया | वह शहर ना होकर गाँव ही था,बस कुछ पक्के मकान थे कुछ पक्की सड़के थी और गरीबी हमारे गाँव से ज्यादा थी |

आखिर ३ सालो के अथक प्रयास के बाद मै ग्रेजुअट बन कर अपने घर पहुंचा, पिताजी और संतु मेरी सफलता से बहुत खुश थे ,लगा की जन्नत में आ गया हूँ, रोज पिताजी को अपने काम पर जाते देखता और शाम को आते देखता, पहले की तरह जिंदगी हो गयी सोच कर बहुत अच्छा लग रहा था, मैंने अपने पुराने मित्रों की ओर रुख किया तो पाया की सबकी शादी हो चुकी थी ,सभी अपने खेतों को कीडों से बचाने के लिए चिंतित थे, मैंने वापस घर की ओर रुख किया तो सारी किताबे मैं पढ़ चुका था, मेरी बाते समझने को कोई बचा नहीं था |

सो-सो कर थक जाता, लेटे–लेटे संतु को खाना बनाते हुए देखता, सुबह पिताजी को हड़बड़ी में काम पर जाते देखता, शाम को पिताजी घर आते, खाना खाते और सो जाते, मेरी बाते समझने वाला कोई नहीं था | कभी कभी पिताजी और संतु पर दया आती, कभी-कभी उनके निम्न जीवन स्तर और निम्न बुद्धि पर क्रोध आता | संतु और पिताजी की नजरे अब मुझे खा जाने वाली लगती, तंग आकार मैं घर से बाहर निकलता तो बाहर वाले मुझे ऐसे देखते जैसे मैं कोई उनसे अलग आदमी हूँ, एकांत की तलाश में निकलता तो लोगो के देखने से ऐसा लगता मानो वो शक कर रहे हो की मैं आत्महत्या तो नहीं करने जा रहा हूँ |

अब हर वो आदमी जो काम कर रहा होता अपना दुश्मन लगता और अब मैंने इस गाँव से मुंह छुपाने का मन बनाया, कई दिनों के बहस के बाद अंततः मैं गाँव छोड़ कर अकेले शहर की ओर निकला पड़ा, और एक-एक करके बड़े-बड़े शहरों की ओर कदम बढाता गया, और जब पीछे मुड कर देखा तो मैं एक सफल व्यक्ति के तौर पर जाना जाने लगा, शायद इसका श्रेय मेरी उपेक्षा को भी जाता है जिसने मुझे जिंदगी के उस कटु सत्य का अनुभव कराया जो किसी किताब से संभव नहीं हो पाता, ये दुनिया बड़ी अजीब है 100kg अनाज को बोरा जो उठा सकता है वो खरीद नहीं सकता और जो खरीद सकता है वो उठा नहीं सकता |


उजाला अगर पर्याप्त ना हो तो परछाई बना कर अँधेरा भी पैदा कर सकता है, अब फिर उपेक्षा का दौर शुरू होने को था पर इस बार व्यक्ति बदल गए थे, दूसरों से उपेक्षा तो आदमी सहन कर सकता है पर अपनो से उपेक्षा आदमी को कमजोर कर देती है, और पिताजी की ये उपेक्षा मेरी पत्नी के आने और मेरे आगे बढते जाने के साथ बढती गयी, जिन को सहारा बनना था वो अब दीमक की तरह आधार कमजोर करने में लगे थे ,जिस पसीने ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया वो पसीना अब बदबूदार लगने लगा, पिताजी की चिंता अब बंधन लगने लगी, हर बात अब उपदेश लगने लगी |

अब मै और मेरी पत्नी खुलकर कमियों की निंदा करने लगे, शर्म अब मिटने लगी, संतु तो ये सब सह ना सका और अपने गाँव वापस चला गया, और शायद यही एक कारण है की वो अब तक जिंदा बच पाया |

जिधर देखा उधर पर्वत नजर आया और हर शिखर की चाह दिल में लिए बढ़ता चला गया, हर शिखर पर पहुचने पर एक और शिखर नजर आया |पहले पिताजी की सायकल बाहर हुई फिर सायकल की तरह पिताजी के और भी सामान बाहर होने लगे और एक दिन पिताजी..

पुरानी बाते सोच-सोच कर थकने के बाद आखिर नींद आ ही गयी...सुबह की गर्मी से आँख खुली तो बीती बातें फिर पहले की तरह हवा हो गयी थी..अंजली ने सारा सामन पैक कर लिया था अब मुझे भी यहाँ रुकने का मन नहीं था...चाय की चुस्कियाँ लेता वापस जाने के बारे में सोच रहा था तब मैंने संतु को घर का काम करते देखा, उसके साथ एक बच्चा उसके हर एक काम को देख उससे सवाल पूछता जा रहा था...मैंने पहले तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया फिर मुझे याद आया ये उससे पुत्र का पुत्र होगा...अब मुझे उसके बारे में रूचि हुई तो पास जाकर बात सुनने की कोशिश करने लगा..

बच्चा हर बात पर क्यों क्यों करके सवाल पूछता जाता है...और संतु हर उटपटांग बात का जवाब देता जाता है...एक और कटु सत्य हिला कर रख देता है, जब बच्चा बार-बार अपने पिताजी से सवाल पर सवाल करता जाता है, पिता बिना झल्लाए हर सवाल को पहले से अधिक शांति से उत्तर दे कर समझाने की कोशिश करता है..लेकिन वही बच्चा बड़ा हो जाता और पिता कोई नयी चीजों को समझ नहीं पाता तो बेटा झाल्लाकर कर उसे जवाब देता है आप रहने दीजिए आपके समझ में नहीं आएगा..आज संतु के साथ उस बच्चे को खेलता देख पहली बार पिताजी और प्रभु को मन में साथ रखकर सोचने लगा और दोनों को बदकिस्मत जानकर अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ |

आज जिस अपनी सोच,बुद्धि,सोच पर गर्व किया करता था कितना उथला लग रहा था, अपने घमण्ड में ही चूर रहा कभी पिताजी को खुश नहीं रख पाया, पिताजी के मुस्कान से ही मेरी मुस्कान थी, पर ना जाने मैं कहां इस भौतिकता में खो गया और वो हाड मांस का महामानव जिसने मेरी खुशियों की ही हमेशा चाह की, मेरी नजरो में अदृश्य हो गया था, जाने क्यों युवा की ऐसी फितरत होती है उसे नित नयी चीजे अच्छी लगती है और क्यों पुराने का हमेशा तिरस्कार करता है, मैंने अपनी सोच में ही पिताजी को अपना दुश्मन बना लिया था, ना जाने वो उस मानव के दिल पर क्या बीतती होगी जब उसी का अंश उसका इतना अपमान करता होगा..

मैं आँगन के बीच पर आंसू और पसीने से लथपथ अपने चारो ओर बदहवास देखता जा रहा था, और सारा अतीत किसी चलचित्र की भांति मेरे आगे पीछे दौड रहा था, कही पिताजी का पसीने से भीगा चेहरा नजर आता, कही अपने पुत्र को खाता देख भूख के बावजूद संतुष्टी का भाव, कही भविष्य की चिंता करती सलवटे भरे चेहरे नजर आते तो कही मेरे कहानी पढ़ कर सुनाने पर सब कुछ मिल जाने वाला भाव लिए चेहरे नजर आते, और मेरे पास इन सब लम्हों की यादो को बटोर लेने के अलावा कोई चारा नहीं था |

सुख या दुःख के पल गुजर जाने के बाद किसी के हाथ नहीं आते बस यादें रह जाती है, रह जाता है किसी के द्वारा सिखाया गया जीवन दर्शन किसी के द्वारा जगाया गया आत्म बल जो आजीवन साथ रहता है |

  हम जैसे भी थे हमारे माता-पिता ने हमें स्वीकार किया,
हमारे माता-पिता जैसे भी है, क्या हमने उनको स्वीकार किया ??

सोमवार, अक्तूबर 11, 2010

किस पर विश्वास किया जाए..

                     कल सुबह खेल के मैदान से आने के बाद मैंने चाय का प्याला और न्यूज़ पेपर थामा और सोफे पर जा कर जम गया, आज हार जाने के कारण मन उतना प्रसन्न नहीं था, पर  दीवाली करीब है कहकर मम्मी ने साफ़-सफाई पर लगा दिया, मन में झल्लाहट तो थी ही उपर से किसी के गेट जोर-जोर से बजाने से और गुस्से में आ गाया, मुझे ही देखने जाना पड़ा की कौन है, मेन गेट से घर के बीच में आँगन है, कोई औरत थी, मांगने वाली थी दूर से देखकर अंदाजा लगाया, पास जाकर पूछने से अच्छा मैंने दूर से ही चिल्ला कर पूछा क्या है, कोई अगर भिखारी हो तो उसे एक कटोरी चावल जरुर देना पड़ता है, पर उसके हाथो में कोई कागज़ था देखकर समझ आ रहा था की कोई चंदा मांगने वाली है, वो जो बोल रही थी स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं दे रहा था, मजबूरन मुझे और आगे जाना पड़ा, वो लगातार कुछ बोले जा रही थी, फिर आधे रास्ते में ही मुझे माजरा समझ आ गया, वो बच्चा बीमार है करके मांगने आई थी |

जब भी कोई गेट पर मांगने आता है मेरे सामने धार्मिक फिल्मो और टीवी के सीरिअल्स का वो दृश्य सामने आ जाता है, जिसमे भगवान अपने भक्तो की परीक्षा लेने भिक्षु बनकर किसी के द्वार पर जाते है, और अगर वहा से कुछ मिलता है तो उसका सब अच्छा-अच्छा होता है, और कुछ लोग नहीं देते तो उसका बुरा हो जाता है, ये सोचकर मै चेहरा देखकर जानने की कोशिश जरुर करता हूँ, और ज्यादातर कुछ ना कुछ दे जरुर देता हूँ |

सामने वाले घर के गेट पर नजर गयी तो देखा एक और औरत वैसा ही कोई कागज़ लिए दरवाजा खटखटा रही थी, बीच रास्ते में ही उसके कागज़ को देखा पारदर्शी पोलीथीन से पैक था, मैला जरुर था, वो बार-बार उस कागज को देख लेने का आग्रह कर रही थी, उसका चेहरा देखा तो काफी दुःख से भरा जरुर नजर आ रहा था, पर उसके मांगने के तरीके नए नहीं थे, सो मुझे उसके पोलीथीन और और दूसरी औरत को देखकर बनावटी लगा सब |

मैंने ज्यादा पास जाये बैगेर ही उससे नहीं का इशारा करते हुए कहा हम लोग नहीं देंगे जाओ, पर वो लगातार कहती जा रही थी, मोर लैका डॉक्टर गुप्ता के अस्पताल में भर्ती हे, फेफड़ा सुखा गे हे ,थोडा मदद कर दे बाबू (छत्तीसगढ़ी में), मैंने जयादा बहस ना करते हुए अपने कदम वापस मोड लिए |

शाम लाइब्रेरी के लिए निकला, लाइब्रेरी जाने के रास्ते में डॉक्टर गुप्ता का अस्पताल पड़ता है, अचानक सुबह का वाकया याद आ गया, मैंने देखने की कोशिश की की वो औरत यहाँ है तो नहीं, उसे नहीं पाकर मन में संतोष हुआ, फिर रात को once upon in time in mumbai फिल्म आ रही थी, देखा एक औरत सुलतान (अजय देवगन) से अपने बेटे के बारे में बताते हुए भीख मांगती है और सुलतान दुवाओ में याद रखना कहकर हर बार खूब पैसे देता है, मुझे फिर वो सुबह का वाकया नजरों के सामने लगा, बार-बार अपने निर्णय को तर्क के तराजू में तौल रहा था |

फिर मैंने पाया की मैं भी क्या करता कितने लोगो पर विश्वास करके चंदा दिया जाए ऐसे में तो आम आदमी अपना घर ही डूबा बैठेगा, गणेश, दुर्गा, होली, अनाथालय आदि लोगो के नाम पर चन्दा दे-दे कर आम आदमी इतना अविश्वासी हो गया है अगर भगवान भी उसके द्वार पर आकार कहे की मैं भगवान हूँ तो आदमी सोचेगा फिर चंदा लेने वाला आ गया है, आज आम आदमी इन लोगो द्वारा अपने ठगे जाने को लेकर इतना सजग है की हर सही-गलत आदमी ठग ही लगता है, समाज के कुछ लोगो ने हमारे विश्वास का इतना गलत इस्तेमाल किया है, सही आदमी जिसे वास्तव में चंदे या मदद की जरुरत है कुछ मिले ना मिले ठोकर और तिरस्कार जरुर मिलेगा |

शायद इस बार भी मेरे लिखना निरर्थक हो जायेगा, प्रश्न तो जरुर किया है मैंने पर इसका उत्तर या समाधान खोज पाना मेरे बस की बात नहीं है, खैर मैंने प्रश्न तो चिट्ठाजगत पर ला दिया है, अब यहाँ के बुद्धिजीवी कोई ना कोई समाधान जरुर खोज लेंगे ये आशा करता हूँ |

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

एक दिन देर से ही सहीं..

ल अभियंता दिवस था ,कुछ दोस्तों के मोबाइल पर सन्देश पहुचे पर उतने नहीं जितने इंजीनियरिंग करते समय आते थे, इंजीनियरिंग करते समय तो लगता था इंजीनियरिंग करने के बाद तो और इसे महत्त्व देंगे | ब्लॉग की दुनिया में नया हूँ अभी कुछ ही दिन हुए यहाँ ब्लॉग लिखते हुए,ये पहला इंजीनियर्स डे था ब्लॉग शुरू करने के बाद | सोचा था काफी पोस्ट आयेंगे चिट्ठाजगत पर भी पर सोचा नहीं था की ना के बराबर आयेंगे | समय की कमी के कारण मैं कुछ लिख भी नहीं पाया फिर सोचा चलो विकिपीडिया से कुछ कॉपी करके कुछ पोस्ट किये देता हूँ | पर वहाँ भी हिंदी क्लिक करने पर नाकामी हाँथ लगी,२-३ लाइने बस थी | फिर मैंने अन्य साइटस खंगाला तो भारत के महान अभियन्ता एवं भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के बारे में कुछ जानकारियां मिली जो प्रस्तुत कर रहा हूँ |

भारत में प्रतिवर्ष 15 सितंबर को अभियन्ता दिवस (इंजीनियर्स डे) के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन भारत के महान अभियन्ता एवं भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म दिन है। विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्म स्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।

एक बार कुछ भारतीयों को अमेरिका में कुछ फैक्टरियों की कार्यप्रणाली देखने के लिए भेजा गया। फैक्टरी के एक ऑफीसर ने एक विशेष मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा, "अगर आप इस मशीन के बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको इसे 75 फुट ऊंची सीढ़ी पर चढ़कर देखना होगा"। भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने कहा, "ठीक है, हम अभी चढ़ते हैं"। यह कहकर वह व्यक्ति तेजी से सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा। ज्यादातर लोग सीढ़ी की ऊंचाई से डर कर पीछे हट गए तथा कुछ उस व्यक्ति के साथ हो लिए। शीघ्र ही मशीन का निरीक्षण करने के बाद वह शख्स नीचे उतर आया। केवल तीन अन्य लोगों ने ही उस कार्य को अंजाम दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि डॉ. एम.विश्वेश्वरैया थे जो कि सर एमवी के नाम से भी विख्यात थे।

दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में एमवी का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए एमवी ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।

उस वक्तराज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।

विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फ‌र्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।

वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।

वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। 1952 में वह पटना गंगा नदी पर पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।





वह खास मुसाफिर-


यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, ‘जंजीर किसने खींची है?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने खींची है।’ कारण पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको कैसे पता चला?’ वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है।पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’

गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया।’ नाम सुन सब स्तब्ध रह गए। दरअसल उस समय तक देश में डॉ. विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी थी। लोग उनसे क्षमा मांगने लगे। डॉ. विश्वेश्वरैया का उत्तर था, ‘आप सब ने मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।’



चिर यौवन का रहस्य-

भारत-रत्न से सम्मानित डॉ. मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने सौ वर्ष से अधिक की आयु पाई और अंत तक सक्रिय जीवन व्यतीत किया। एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन का रहस्य क्या है?' डॉ. विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है। और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?'


                                           अभियंता दिवस की शुभकामनाएँ एक दिन देर से सहीं



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मंगलवार, सितंबर 14, 2010

एक मुलाकात ऐसी भी..


मैंने ऑटो वाले को ५ रुपये दिए और बिना अगल-बगल देखे स्टेशन की और कदम बढ़ा दिए उसने ४.०० को आने को कहा था,मैंने अपनी हाथ घड़ी देखी जिसे मैं केवल परीक्षा देने जाता तब ही पहनता था,और अपने भाई से क्रिकेट बेट के बदले सौदा किया था, आज न जाने ऐसा लग रहा है की आज पारुल ने उसे नहीं बुलाया होगा |

अभी ३.५० हुए है स्टेशन खाली है न कोई ट्रेन, न वो हाथो से चलकर भीख मांगने वाला,न वो बच्चा जो बड़ी सी केतली और प्लास्टिक के कप लेकर लेकर चाय-चाय बिना साँस लिए जपता है,सो मै खाली सीमेंट की ठंडी बैंच में बैठ जाता हूँ ,और वो गरम कुर्सियाँ याद आ जाती है ,जब पारुल पराग को से कुछ बात करने के लिए प्यास का बहाना करके उसे ले जाती है,और मै पारुल के बैठे हुए जगह की ओर खसक जाता हूँ |
मैं पारुल और पराग बहुत अच्छे दोस्त थे लेकिन अब पारुल मेरी सिर्फ अच्छी दोस्त बन कर रह गयी जबकि पराग के काफी नजदीक पहुँच गयी ,कभी-कभी पराग अपने और पारुल के बारे में बताता है पर तब जब उसे मुझसे कुछ परामर्श लेना होता है या मीठी बातों में लम्बे समय तक डूबने के बाद उसका इन सब चीजो से मोह भंग होता हो जाता है तब |

अब पराग को मैं अब अच्छा नहीं लगता आजकल सब बदला-बदला सा लगता है ,नहीं बदली तो पारुल वो अभी भी कुछ नहीं समझती |

पारुल का घर भिलाई में है,और कॉलेज रायपुर में ,शाम ४.३० बजे की ट्रेन से घर वापस जाती है,और सुबह १० की ट्रेन से रायपुर पहुँचती है, मैंने कल ही कहा था कभी मिलने का प्लान बनाना बहुत दिनों से हम मिले नहीं हैं,और पारुल ने आज ही बुला लिया कहा की आज कॉलेज जल्दी खत्म हो जायेगा ,और कल से दीवाली की छुट्टियाँ लग जायेगी, पराग आ रहा है की नहीं उसके बारे में तो उसने नहीं कहा था,पहले कभी जब भी पारुल से हम मिलते तो पराग और मैं साथ ही जाते थे स्टेशन ,पर आज पहली बार मैं अकेले मिलने जा रहा था ,मैंने सोचा पराग मुझसे कांटेक्ट करेगा की चलना है ,जब उसने नहीं किया तो मैंने सोचा की हो सकता है पारुल ने मुझे अकेले बुलाया हो,और अगर पारुल कहेगी की पराग कहाँ है तो कह दूँगा की मैंने सोचा की तुमने उसे बताया होगा और मैं सीधे स्टेशन आ गया,पराग से कांटेक्ट करने का समय नहीं मिला |

खैर सीमेंट की बेजान कुर्सियों पर बैठे ४.१५ हो चुके थे मैंने एक बार रेलवे की घडी देखी फिर उसे अपने घडी से मिलान किया दोनों में ४.१५ हुए थे,,स्टेशन में भीड़ बढ़ने लगी थी,आस पास की कुर्सियां भी यात्रियों से भरने लगी थी,आज हो सकता है पारुल,पराग और उसके बीच में खटपट हो रही है उसके बारे में मुझे बताये इसलिए मुझे अकेले बुलाया हो और मैं तरह-तरह के हवाई महल बनाने लगता हूँ |

फिर लोग मेरे साथ वाले बेंच पर बैठने लगे थे, मन में क्रोध उमड़ा की कही और नहीं बैठ सकते | लोग जगह कम होने के कारण सट-सट कर बैठने लगे थे, बेंच पर लोगो के हलचल से मेरे सपने के खलल पड़ी ,मैं जो सोच रहा था बंद करके परेशान मुद्रा में उठ खड़ा हुआ और पारुल को देखने इधर-उधर नजर घुमाने लगा ,मेरे खड़े होते ही जो रिक्त स्थान बना था उस पर आस-पास के लोग फैल गए और रिक्त स्थान रिक्त नहीं रहा ,अब पास में जो महाशय खड़े हुए थे बेंच के एक कोने पर विराजमान हो गए,जिससे बेंच पर लोग मेरे खड़े होंने पर आराम से फ़ैल जाने पर जो संतुष्टी का भाव उत्पन्न हुआ था लोगो के चेहरे से जाता रहा |


अब गर्मी और भीड़ से मन विचलित होने लगा था | मन और सपने देखने को कर रहा था,कोई अच्छी जगह तलाशने के लिए नजरें इधर-उधर घुमाई पर कोई खाली जगह नजर नहीं आई ,४.२० हो चुके थे रेलवे की घडी में, ऐसा लग रहा था जैसे नींद से उठा हूँ ,लगा की चाय पी लेनी चाहिये ,स्टेशन से बाहर चाय पीने के लिए निकला ,चाय का प्याला लगाते ही उसकी क्वालिटी से एक बार फिर घर के चाय का महत्व समझ आ गया ,वो लम्हा याद आ गया जब मम्मी सुबह चाय बन गया करके उठाती और मैं कहता सोने दो ना क्या रोज-रोज चाय पीने के नाम से उठा देती हो | चाय का स्वाद अच्छा नहीं लगा और पारुल कही आ कर स्टेशन में मुझे ना ढूंढे इसलिए जल्दी-जल्दी उस द्रव को गले से उतारा जिसे चाय कहकर ३ रूपए मुझसे ऐठे गए थे |

अब तो हद ही हो गयी ४.२५ हो चुके हैं ,और कोई पता नहीं उसका ,अब पारुल के लिए मेरे मन में क्रोध उमड़ रहा था ,ट्रेन आने में ५ मिनट है ५ मिनट में क्या मिलूँगा उससे,फिर मैंने सोचा हो सकता है कॉलेज में कोई काम आ गया होगा ,खैर अब आएगी तो उसको अभी जाने नहीं दूँगा कहूँगा की ५.३० वाली ट्रेन से जाना |

४.२८ को भीड़ में पारुल का चेहरा दिखाई दिया ,वो जल्दबाजी में स्टेशन के अंदर आ रही थी ,थोड़ा सुकून मिला ,तभी उसके पीछे पराग आता हुआ दिखाई दिया ,अब मैं कुछ सोच सकने की हालत में नहीं था ,मेरे कानों में सुन्न करके एक आवाज़ बस आ रही थी ,भीड़ की आवाज़ ना जाने कहा खो गयी थी ,उन लोगों ने मुझे दूर से ही देख लिया,मैं उन लोगों को अपने ओर आते देख रहा था,याद नहीं की उस समय मेरा चेहरा कैसा लगा रहा था,तभी लोग एक ओर जल्दबाजी में चलने लगे एहसास हुआ की ट्रेन आ गयी ,अब वो लोग मेरे पास आ गए थे |

पारुल ने कहा मेरे वजह से काफी इंतज़ार करना पड़ा ना ,ये इसके चक्कर में तो है कहकर उसने पराग को अपने बैग से मारा ,इसको बोली थी ४ बजे स्टेशन में आना तो ये साहब कॉलेज कैन्टीन में ही पहुच गए ,और जल्दी चलने बोली तो बोलता है तेरे कॉलेज कैन्टीन में आया हूँ कुछ खिलाएगी नहीं क्या,एक प्लेट समोसा खाया फिर माना ये ,फिर मैं भागते-भागते आयी हूँ |

बोलते-बोलते ट्रेन के दरवाजे तक पहुँच गयी पारुल हमारे साथ फिर कहा और सुना कैसा है तू? उसने मुझसे पूछा मैं कुछ बोलते के लिए अपना मुंह ही खोला की ट्रेन का जोरदार हार्न बजा और पारुल ट्रेन में चढ़ी और ट्रेन चलने लगी ,फिर उसने कहा अब दीवाली के बाद मिलेंगे बाय, हैप्पी दीवाली |कुछ ही सेकंड्स में पारुल नजरों से ओझल हो गयी |

मैंने अपने हाथों में देखा कुरकुरे का पैकेट जो मैंने पारुल को पसंद है करके ख़रीदा था मेरे हाँथ में ही रह गया और मेरी असफलता की कहानी कह रहा था , मैं और पराग अपने पीछे की ओर बने बैंच पर एक-एक कोने पर बैठ गए ,ये हमारे कॉलेज के पीछे बना छोटा सा स्टेशन था,जहाँ ट्रेन जाने के बाद एक बार फिर सन्नाटा हो गया था ,ट्रेन से उतरे लोग पैदल कॉलेज के गेट तक पहुँच गए थे और अभी भी आँखों से ओझल नहीं हुए थे |

आज ऐसी स्थिति आ गयी थी हम दोनों अपने-अपने किये अपराध से वाकिफ थे और अलग-अलग दिशाओं में देख कर शायद ये सोच रहे थे की किसका अपराध ज्यादा बड़ा है कौन पहले सन्नाटा तोडेगा | हम दोनों काफी देर शांत बैठे रहे ,मैं भी सोच नहीं पा रहा था की क्या कहूँ ,शायद पराग को अपने और पारुल के बीच हो रहे गडबड को ठीक करने का यही सही वक्त लगा होगा और वो कुछ एकांत में बात करना चाहता होगा इसलिए वो अकेले पारुल के कॉलेज चला गया होगा,मुझे उन लोगों के बीच आ जाने पर आत्मग्लानी महसूस हुई और लगा इन सबसे दूर चला जाऊं,पर जाता तो जाता कहाँ ?


बिना बोले काफी देर बैठे रहे ,अचानक हाथ में कुरकुरे के पैकेट का अहसास हुआ,मैंने पैकेट खोल कर उसके तरफ बढ़ा दिया ,उसने कहा कब चलना है घर ,कॉलेज की छुट्टियाँ तो लग ही चुकी थी ,हम दोनों का घर एक ही शहर में था और घर गए काफी दिन हो चुके थे दोनों को, घर के नाम से हमारे बीच धीरे-धीरे तनाव के बादल छंटने लग गए और हम अपनी छुट्टियों की प्लानिंग करने में व्यस्त हो गए | स्टेशन में बात करते-करते काफी समय गुजर गया ,पिछली आँधी का नामोनिशान नहीं था ,माहौल खुशनुमा हो गया ,दिन के ढल जाने से ठंडकता का अहसास हुआ ,पंछियों के वापस घर आने की खुशी भरी चहचहाहटो से अन्य आवाजें दब गयीं और एक अजीब मानसिक शांति के अहसास के साथ मैं अपने कमरे में वापस लौटा अपनी किताबों पर से धूल हटाया और मेज पर किताबों के पन्ने उलटने लगा |

उस लम्हे को बुरा मत कहो ,जो आपको ठोकर पहुंचाता हो,


बल्कि उस लम्हे की क़द्र करो,क्योंकि वो आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है |

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

पहले अपने मन को जीतो !

एक व्यक्ति एक प्रसिद्ध संत के पास गया और बोला गुरुदेव मुझे जीवन के सत्य का पूर्ण ज्ञान है | मैंने शास्त्रों का काफी ध्यान से मैंने पढ़ा है | फिर भी मेरा मन किसी काम में नही लगता | जब भी कोई काम करने के लिए बैठता हूँ तो मन भटकने लगता है तो मै उस काम को छोड़ देता हूँ | इस अस्थिरता का क्या कारण है ? कृपया मेरी इस समस्या का समाधान कीजिये |

संत ने उसे रात तक इंतज़ार करने के लिए कहा रात होने पर वह उसे एक झील के पास ले गया और झील के अन्दर चाँद का प्रतिविम्ब को दिखा कर बोले एक चाँद आकाश में और एक झील में, तुमारा मन इस झील की तरह है तुम्हारे पास ज्ञान तो है लेकिन तुम उसको इस्तेमाल करने की बजाये सिर्फ उसे अपने मन में लाकर बैठे हो, ठीक उसी तरह जैसे झील असली चाँद का प्रतिविम्ब लेकर बैठी है |

तुमारा ज्ञान तभी सार्थक हो सकता है जब तुम उसे व्यहार में एकाग्रता और संयम के साथ अपनाने की कोशिश करो | झील का चाँद तो मात्र एक भ्रम है तुम्हे अपने कम में मन लगाने के लिए आकाश के चन्द्रमा की तरह बनाना है, झील का चाँद तो पानी में पत्थर गिराने पर हिलाने लगता है जिस तरह तुमारा मन जरा-जरा से बात पर डोलने लगता है |

तुम्हे अपने ज्ञान और विवेक को जीवन में नियम पूर्वक लाना होगा और अपने जीवन को जितना सार्थक और लक्ष्य हासिल करने में लगाना होगा खुद को आकाश के चाँद के बराबर बनाओ शुरू में थोड़ी परेशानी आयेगी पर कुछ समय बात ही तुम्हे इसकी आदत हो जायेगी |

निष्कर्ष :- मन के हालत के चलते इन्सान को अपनी प्रतिभा का सही उपयोग करना सीखना चाहिए बजाये मायूस होकर बैठने के |